गहिरा गुरूजी का संक्शिप्त परिचय



वनवासिायों के आराध्य परम् पूज्य श्री रामेश्वर गहिरा गुरू जी का नाम समाज सेवा के क्शेत्र में अमर है। उनका जन्म रायगढ़ जिले के लैलूंगा विकासखण्ड के ग्राम-गहिरा में एक आदिवासी कवंर परिवार में श्रावण अमावश्या सन् 1905 में हुआ था। परम् पूज्य गुरूजी 21 नवम्बर 1996 देवौत्थानी एकादशी के दिन अपनी भौतिक काया का त्याग कर 92 वर्ष के उम्र में बह्मलीन् हो गये दीन-दुखियों की सेवा ही उनका धर्म था । बाल्यकाल से ही गुरूजी अलौकिक शक्तियों की ओर आकर्शित रहे जिसके फलस्वरूप औपचारिक शिक्शा अक्शर ज्ञान तक ही सीमित रहे । गुरूजी की संकल्पशीलता सतत् साधना तथा निःस्वार्थ समर्पित सेवा भावना ने अविभाजित मध्य प्रदेश के रायगढ़/सरगुजा/बिलासपुर/कोरबा अविभाजित बिहार के रांची जिले के जनजातिय अंचलों में एक बड़ी सामाजिक और आर्थिक क्रान्ति कर दिखायी।

गृहस्थ जीवन में रहकर भी लोक कल्याण के लिये सार्थक तपस्या की जा सकती है यह सच्चाई आपके आदर्श समाज सेवा कार्य से सहज प्रकट होती है। भक्ति ज्ञान और कर्म का जैसा लोक कल्याणकारी त्रिवेणी संगम आपके सेवा में है वैसा बहुत कम देखने को मिलता है। श्री गहिरा गुरू जी ने अपने अभिनव सेवा प्रयोग से यह सिद्ध कर दिखाया कि ईश्वरोपासना, धर्म और सद्ज्ञान की मदद से भी पिछड़े समाज में ब्यापक स्तर पर सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन लाया जा सकता है। जब उन्हें मालूम हुआ कि जनजातिय दुर्गम आन्तरिक क्शेत्रों में पशु और मानव मांस भक्शण/बलि की कुप्रथा प्रचलित है तो उन्होंने घोर पिछड़ेपन की प्रतीक इस कुप्रथा को मिटाने का संकल्प किया। इस दिशा में आपने अज्ञान के अंधेरे में भटकते आदिवासियों को शांति और सेवा का ब्रत ग्रहण करने के लिए प्रेरित कर उनमें सद्विचार सद्भावना एवं प्रेम की ज्योति जगायी। गुरूजी ने आदिवासियों के संस्कार सुधारने के दिशा में भी ब्यापक प्रयास किये हैं आप मदिरापान को आदिवासियों के पिछड़ेपन एवं शोशण का एक प्रमुख कारण मानते थे। वे अपने उपदेशों में वनवासी आदिवासियों को “सत्य शांति दया क्शमा“ धर्म का पालन करने की चार अच्छी बातें ग्रहण करने तथा चोरी-दारी (परस्त्रीगमन) हत्या और मिथ्याभाशण न करने इन चार बुरी बातों को त्यागने पर जोर देते थे । “सत्य-शांति-दया-क्शमा धारण करें । चेरी-दारी-हत्या-मिथ्या त्याग करें“।। इसी उपदेश के फॅलस्वरूप अविभाजित मध्यप्रदेश के सरगुजा/रायगढ़/बिलासपुर/कोरबा बिहार के रांची जिले के लाखों लोगों के जीवन में चमत्कारिक परिवर्तन आया। गुरूजी ने सन् 1943 में बनवासियों के योजनाबद्ध सर्वांगिण विकास हेतु “सनातन संत समाज“ नामक संस्था की स्थापना की। आपने शिक्शा और सुसंस्कारों की प्रचार के लिए सुदूर आदिवासी अंचलों में संस्कृत पाठशालायें आश्रम विद्यालय तथा संस्कृत महाविद्यालय की स्थापना की। परम् पूज्य गुरूजी एवं संस्था सनातन संत समाज गहिरा के सेवा कार्यों से प्रभावित होकर शासन द्वारा क्रमशः “राश्ट्रीय ईंदिरा गांधी समाज सेवा पुरस्कार“ “बिरसा मुण्डा आदिवासी सेवा पुरस्कार“ एवं “शहीद बीर नारायण सिंह पुरस्कार“ प्रदान किया गया। छत्तीसगढ़ शासन द्वारा परम् पूज्य गुरूजी की स्मृति में गहिरा गुरू पर्यावरण पुरस्कार स्थापित किया गया।